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मंगलवार, 20 मार्च 2018

गांधी की विकास परिकल्पना और पत्रकारिता की भूमिका


गांधी की विकास परिकल्पना और पत्रकारिता की भूमिका 

महात्मा गांधी जी ने कई दशकों तक पत्रकार के रूप में कार्य किया, कई समाचारपत्रों का संपादन किया। उस समय में जब भारत में पत्रकारिता अपने शैशव काल में थी, उन्होंने पत्रकारिता की नैतिक अवधारणा प्रस्तुत की। महात्मा गांधी ने जिन समाचार पत्रों का प्रकाशन अथवा संपादन किया वे पत्र अपने समय में सर्वाधिक लोकप्रिय पत्रों में माने गए। महात्मा गांधी एक पत्रकारीय चेतना के उज्ज्वल प्रतिमान के रूप में हैं जिन्होंने अपनी सरोकारीय चेतना से जनमानस को लाभान्वित किया ।
यह एक संपूर्ण जनतंत्र होगा, जो अपनी जीवन संबंधी आवश्यकताओं के लिए पड़ोसियों पर निर्भर नहीं होगा, फिर भी अन्य अनेक आवश्यकताओं के लिए, जिनमें दूसरे की निर्भरता अनिवार्य है, अन्योनाश्रित रहेगा। इस प्रकार प्रत्येक गांव का सबसे पहला काम होगा, खुद अनाज पैदा करना और कपड़े के लिए कपास पैदा करना। उसमें गोचर-भूमि होगी और प्रौढ़ों-बच्चों के मनोरंजन के लिए साधन और खेलकूद का मैदान होगा। गांव में नाटकघर, पाठशाला और सार्वजनिक भवन की व्यवस्था होगी। बुनियादी पाठ्यक्रम तक शिक्षा अनिवार्य होगी। प्रत्येक गांव के घर में बिजली की व्यवस्था होगी। जहां तक संभव हो प्रत्येक प्रवृति सहकारिता के आधार पर चलाई जाएगी।
 26 जुलाई 1942, हरिजन
गांधीजी भारत के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक चरित्र से पूरी तरह परिचित थे, इसलिए उन्होंने भारत के विकास के लिए एक परिकल्पना गढ़ी थी, जो ग्राम स्वराज पर आधारित थी। उन्हें इसका पूरा ज्ञान था कि जिस देश की जनसंख्या का 70 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण क्षेत्र में निवास करता है और जिसके जीविकोपार्जन का आधार कृषि और लघु-कुटीर उद्योग है, उसकी अनदेखी कर भारत का विकास नहीं किया जा सकता। एक व्यावहारिक आदर्शवादी होने के नाते उन्होंने विकास परिकल्पना की नींव अपने प्रारंभिक जीवनकाल में ही रखनी शुरू कर दी थी। तत्कालीन समाज में अस्पृश्यता, जातिभेद, पूंजी का केंद्रीकरण, दबे-कुचलों का शोषण चरम पर था। इसके खिलाफ उन्होंने अभियान छेड़ दिया। उनका मानना था कि भारत के वैकासिक ढांचे को मजबूती प्रदान करने के लिए लोकतांत्रिक सहभागिता जरूरी है। एक-एक गांव के सम्मिलित प्रयास से ही संपूर्ण भारत का विकास हो सकेगा। लोगों को जागरूक करने के लिए उन्होंने यंग इंडिया, नवजीवन, इंडियन ओपीनियन और हरिजन समाचारपत्रों का सहारा लिया। गांधीजी का वैकासिक ढांचा भारत की एक छोटी इकाई गांव से शुरू होता है। उनका मानना था कि प्रत्येक गांव में ऐसे संसाधन अवश्य मौजूद हैं, जिनसे गांव की वैकासिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया जा सके। गांव में ही हर हाथ को काम मिल सके। इसी से आत्मनिर्भरता बढ़ेगी। लोगों का टूटा हुआ मनोबल (औपनिवेशिक व्यवस्था में कृषि, लघु-कुटीर उद्योगों के ध्वस्त होने से) ऊंचा होगा।
<script async src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygooglegगांधी र्गांधी जी दूरदर्शी थे, उन्हें इस बात का भान था कि भारत की श्रम शक्ति ही सबसे बड़ी पूंजी होगी, इसलिए सामाजिक-आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए श्रम शक्ति का उपयोग महत्वपूर्ण मानते थे। इसके बाद उन्होंने देश की ध्वस्त लघु-कुटीर उद्योगों को खादी ग्रामोद्योग के माध्यम से पुनर्जीवित करना शुरू किया। स्वदेशी चीजों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से खादी के लिए आंदोलन छेड़ा गया। स्त्रियों के हाथों तक सीमित रहने वाला चरखा पुरुषों के हाथों में भी आ गया। यहां यह बता देना जरूरी है कि दो सौ वर्ष पहले भारत से सुदूर देशों में 30 लाख रुपये का कपड़ा निर्यात किया जाता था। ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत आगमन के बाद मिलों का चलन शुरू हुआ। लोग मिलों का बना कपड़ा पहनने लगे। स्थिति यह हो गई कि ब्रिटेन में बने कुल कपड़े का एक चौथाई 60 करोड़ रुपये का विलायती कपड़ा भारत में आयात होने लगा। देश से हथकरघे और चरखे का शिल्प नष्ट हो गया। 1925 में गांधीजी ने अखिल भारतीय चरखा संघ की स्थापना की। थोड़े ही दिनों में देश में 50 लाख चरखे चलने लगे।
चरखे की  सफलता पर गांधीजी ने कहा कि मेरी जानकारी में ऐसा कोई यंत्र नहीं है जो इस छोटे से घरेलू यंत्र का मुकाबला कर सके। ऐसी कोई संस्था नहीं, जिसने चरखा संघ की तरह थोड़ी सी पूंजी लगाकर 18 वर्ष में लाखों गरीब स्त्री-पुरुषों के हाथों में चार करोड़ रुपये की मजदूरी दी हो।
गांधीजी ने अपने जीवनकाल में ही विकास परिकल्पना की नींव रख दी थी, बस जरूरत थी ऐसे नेतृत्वकर्ता की जो उनकी परिकल्पना को दिशा देता, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा न हो सका। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय व्यवस्था में कई विकार उत्पन्न हो गए। आजादी के 59 वर्षो बाद भी बेकारी, गरीबी और भुखमरी से भारत मुक्त नहीं हो पाया है।भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए पंचवर्षीय योजनाएं बनाई गईं, लेकिन अर्थव्यवस्था का मेरुदंड होने के बाद भी कृषि, लघु-कुटीर उद्योग की उपेक्षा की गई। प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में कृषि को प्राथमिक क्षेत्र में रखने के बजाए पहली, चौथी और छठी योजनाओं में प्राथमिकता दी गई। परिणामस्वरूप कृषि विकास दर में उतरोत्तर कमी आती चली गई। भारी उद्योगों को बढ़ावा, विदेशी पूंजी निवेश से शहरी भारत का विकास तो हुआ, लेकिन ग्रामीण भारत लगातार पिछड़ता चला गया।
मौजूदा वैकासिक ढांचे ने भारत को दो धड़ों में बांट दिया है। एक विलासितापूर्ण, असंयमित जीवन का शहरी ढांचा और दूसरा उपेक्षित ग्रामीण ढांचा। शहर-गांव के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं। पूंजी का केंद्रीकरण होने से अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब होते जा रहे हैं। लाखों की संख्या में ग्रामीणों का शहर की ओर पलायन हो रहा है। शहर में शोषण का शिकार होने से सामाजिक-आर्थिक असंतोष बढ़ रहा है।यहां दो बातें महत्वपूर्ण हैं। पहला यह कि न तो गांधी की विकास परिकल्पना को दिशा देने वाला कोई नेतृत्वकर्ता मिला और न ही जनसंचार माध्यमों (प्रिंट, रेडियो, टेलीविजन) ने उनकी परिकल्पना को तरजीह दी। मौजूदा व्यवस्था में जनसंचार माध्यमों के विकास के बाद भी उनकी परिकल्पना धरी की धरी रह गई।


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